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Saturday, 22 October 2011

MAHAAPRTIKSHA

आज सुबह जब उठा इस बियावान धरती पर ......तो देखा कि फिर सुबह आसमान से धरती पर गिर पडी थी .आकाश के पूर्वी छोर से लंगडाते हुए दिन निकल रहा था ....इधर दूर अन्तरिक्ष में सूर्य अपने सौरमंडल से धूप के महीन धागों से एक सुंदर साडी बुनकर धरती को पहना रहा था ....आज फिर मैंने देखा कि मेरी ''महाप्रतिक्षा'' सुदूर अन्तरिक्ष के एक झरोखे से टुकुर-टुकुर झांककर देख रही थी ...क्योकि मैंने उसे वचन दिया है कि मैं उसकी इस धरती पर तब तक प्रतीक्षा करूँगा ...जब तक वह मेरे दिव्य होंठों का स्वर न बन जाए ....कि जब मैं उसे गुन्गूनादू
तो कब्रिस्तान और शमशान भी श्रीकृष्ण की बांसुरी के स्वर बनकर जाग उठे ...और सभी मृत शरीर पुन्ह जीवित होकर इन प्राचीन मृत्युशास्त्रों से बाहर निकल आये ...मैं इन सभी को छाती से लगाने के लिए ही सूर्यपुत्री ''सावित्री''  की इस धरा पर ''महाप्रतिक्षा'' कर रहा हूँ ......                                                 -  रविदत्त मोहता   

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